रविवार की प्रातः बेला में सूर्य के दर्शन न होने की कल्पना मात्र से ही ऊर्जा के प्रवाह में कमी आना स्वाभाविक है। किंतु प्रकृति के खेल भी अद्भुत हैं। यदि सूर्य कहीं अन्यत्र अपनी किरणों की छटा बिखेरने में व्यस्त हो, तो उसी क्षण बादलों की ओट से शीतल जल की वृष्टि होने लगती है — और मानव मन का मोर आनंद में झूम उठता है।
वर्षा से खेतों में जीवनदायिनी फसलें लहलहाने लगती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो धरती माँ हरे रंग की साड़ी पहनकर अपने संतानों को आँचल में समेटे संपूर्ण सुखों से तृप्त करने का संकल्प कर चुकी हों। दूसरी ओर, नदी, नाले, ताल-तलैया जल से उमड़-घुमड़ कर आनंद में भर उठते हैं।
वाह री प्रकृति!
तेरे खेल कितने निराले हैं!
अपने समस्त संतानों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी को तू जिस सहजता और समर्पण से निभाती है, वह अद्वितीय है।
आज के युग में लोग कहते हैं कि संसार विकसित हो रहा है। विज्ञान ने अपूर्व ऊँचाइयाँ छू ली हैं। अमुक-अमुक फार्मूलों से दवाएँ, यंत्र व तकनीकें गढ़ी जा रही हैं। परंतु जब हम प्रकृति और अध्यात्म की ओर दृष्टि डालते हैं, तो वहाँ प्रमाणिकता की नहीं, बल्कि अनुभव की प्राथमिकता दिखती है।
हम सभी इसी समाज की संतान हैं। बीते वर्षों में विज्ञान ने अवश्य ही जीवन के अनेक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं, परंतु प्रकृति के समक्ष हम अब भी बौने ही प्रतीत होते हैं। जैसे कोई अबोध बालक पहली बार अपने पैरों पर खड़ा होकर प्रसन्नता से झूम उठता है, वैसे ही मानव भी अपनी उपलब्धियों पर गर्व से भर उठता है — और कई बार यह गर्व दंभ में बदल जाता है।
उपलब्धियों पर आनंद मनाइए,
पर इतराइए मत।
हमें चाहिये कि हम अपने आसपास घटनेवाली घटनाओं को जानें, उन्हें अनुभव करें और इस पर समाज, राष्ट्र और परिवार के हित-अहित पर अपने विचार रखने से न हिचकें।
यदि आप किसी कारणवश दूसरों से कहने में संकोच कर रहे हों — चाहे वह शर्मिंदगी हो, डर हो या कोई और कारण — तो भी अपने मन की बात को दबाइए मत।
एकांत में दीवारों को कहिए,
अपने ईश्वर से कहिए —
पर कहिए जरूर।
क्योंकि असली राहत तभी मिलती है जब मन के बोझ को शब्दों में ढालकर व्यक्त किया जाए।
शब्द न केवल साझा करने का माध्यम हैं,
बल्कि परिवर्तन की पहली सीढ़ी भी होते हैं।
कभी-कभी एक छोटी-सी बात भी किसी के जीवन में आशा की किरण बन जाती है। हमारे चारों ओर ज्ञानी और शिक्षित लोग भरे पड़े हैं, परंतु विवेकपूर्ण कार्य ही जीवनरक्षक और प्रकाशप्रद सिद्ध होते हैं।
यह आवश्यक नहीं कि हम केवल ज्ञान ही परोसें। जीवन की कोई भी विद्या, जब वह जन-कल्याण तक पहुँचती है, तभी प्रकृति के चक्र को पूर्ण करती है।
इसलिए —
अपने स्वविवेक को रोके नहीं, टोके नहीं।
बस निसंकोच आगे बढ़ते रहिए —
मंगल ही मंगल होगा,
जीवन खुशियों से भर उठेगा।