रविवार हो, मौसम सुहाना हो, और बाहर झमाझम बारिश की झंकार हो — तो भला किसका दिल न झूमे, गुनगुनाए और नाच उठे! यह प्रकृति का मधुर आमंत्रण है — मानव ही नहीं, सभी जीवों को आनंद के संगम की ओर ले जाने वाला।
लेकिन यही सुंदर बारिश, जब बेतरतीब विकास और मानवीय लापरवाही से टकराती है, तब वह त्रासदी बन जाती है — लाखों लोग बेघर हो जाते हैं, करोड़ों पक्षी और जीव-जन्तु दर-ब-दर भटकते हैं। पेड़ों की कटाई और कंक्रीट के जंगलों ने इन्हें शरणहीन बना दिया है।
हम मानव निरंतर नई-नई खोजें कर रहे हैं, सुविधा और विलासिता की दौड़ में दौड़ रहे हैं। यही जीवनशैली पहले महानगरों और नगरों में जन्म लेती है, और धीरे-धीरे गांवों तक पहुंच जाती है। इसी आकर्षण में ग्रामीण युवा भी गांव छोड़ शहर की ओर रुख करते हैं, जहां प्रारंभिक संघर्ष और असहज परिस्थितियां उनका स्वागत करती हैं — और बारिश जैसी मौसमी चुनौती इस संघर्ष को और भी गहरा कर देती है।
शहरों में बढ़ती आबादी और घटते वृक्षों का सीधा असर पक्षियों की घटती संख्या में साफ दिखता है। सवाल यह है कि इन समस्याओं का समाधान क्या है?
उत्तर हम सभी जानते हैं। इस पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होती है, सेमिनार होते हैं, घोषणाएं होती हैं — पर बदलाव नजर नहीं आता।
इसका मूल समाधान एक ही है: व्यक्तिगत जागरूकता और भागीदारी।
भारत की 60% आबादी आज भी गांवों में निवास करती है। यदि गांव का युवा जागरूक हो, तो वह गांव से ही हजारों प्रकार के उद्यम शुरू कर सकता है — स्वयं का विकास कर सकता है और पर्यावरण को भी संतुलित रख सकता है।
“हम सुधरेंगे, देश सुधरेगा” — यह कोई नारा मात्र नहीं, बल्कि समाधान की जड़ है। न तो हमें किसी चमत्कार की उम्मीद करनी चाहिए, और न ही बहकावे में आकर दिशा से भटकना चाहिए।
हमें अपने चारों ओर उपलब्ध संसाधनों की पहचान करनी चाहिए, उन्हें समझना चाहिए और विचार करना चाहिए कि उनका उपयोग अपने गांव, समाज और देश के हित में कैसे किया जा सकता है।
शायद इसी आत्मचिंतन से समाधान की राह निकल पड़े।
सादर
किशोर कुमार दास “भारतीय”
दिनांक: 06/07/2025